प्रेम
Image courtesy Faisal Amir via unsplash
प्रेम
सिर्फ़ ढाई अक्षर पर कितना गूढ़ है ये शब्द
प्रेम, प्यार, मोहब्बत
मतलब 'स्व' को त्याग कर
समो दो अपने अस्तित्व को अपने प्रेमी में
ये दुनिया ये समाज, हमारी प्रथाएं - परम्पराएं यही तो उम्मीद करती हैं
भुला दो कि तुम क्या थीं, क्या हो और क्या हो सकती हो
समर्पित कर दो अपने ह्रदय, अपनी आत्मा, अपनी देह को
कुछ इस तरह कि तुम तुम ना रहो
वो बन जाओ जैसा वो तुम्हे देखना चाहता है
प्रेम
कस्तूरी है मृग के शरीर में छिपी
सब कहते हैं कि संजो कर रखो इसे
पर फैलने दो इसकी ख़ुशबू अपने घर - परिवार में
प्रेम त्याग चाहता है, बलिदान चाहता है
निःस्वार्थ समर्पण प्रेम की पहचान है
प्रेम में वक़्त, जगह, नाम पहचान की अहमियत नहीं
मत रोको खुद को, बह जाओ प्रेम की नदी में
और सराबोर कर दो अपने प्रियजनों को प्यार दुलार की उमंग में
उफ़्फ़! मेरे मन के एक कोने में भी तो कस्तूरी है
स्व की, मेरे नाम की, मेरे अपने अस्तित्व की
जिसे संजो कर रखना, प्रेम करना भी मेरी ही जिम्मेदारी है
तो क्या हुआ जो सबके वक़्त से बचा कर रख लूँ एक लम्हा मैं अपने लिए
एक टुकड़ा धूप का, एक क़तरा ख़ुशी का जो सिर्फ़ मेरा है
ऐसा करके क्या मैं स्वार्थी हो रही हूँ?
नहीं। और अगर ये स्वार्थ है भी तो अब यूँ ही सही
मेरे प्रेम पर अग़र हक़ उन सबका है तो ख़ुद को प्रेम करना मेरा भी हक़ है
है ना?
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