अनामी की लाल बिंदी
उफ़...दिन भर के काम का बोझ उतार कर
छिपा देती हो तुम उसे अपने दिमाग के किसी कोने में
वाक़ई दाद देनी होगी तुम्हारी हिम्मत और बर्दाश्त की
ढो रही हो तुम सालों से इस थकाऊ, उबाऊ ज़िंदगी को
उतार देती हो अपने माथे से तुम वो बड़ी सी लाल बिंदी
और चिपका देती हो उसे बाथरूम के मटमैले शीशे पे
इंतज़ार करेगी अब वो तुम्हारा जहाँ, भोर की पहली किरण तक
तुम्हारे बेरौनक, उदास चेहरे की चमक बढ़ाने के लिए
थकी हुई अलसाई आँखें, उलझे रूखे बाल
मढ़ रहे हैं तुम्हारे प्रतिबिम्ब को जो झांक रहा है इस लम्बे शीशे से
सोने का मुलम्मा चढ़ा है जिस पर, बिलकुल तुम्हारे महिमामंडित जीवन की तरह
पर किसे परवाह है इसकी लहूलुहान आत्मा पर लगे घावों - ख़रोंचो की
सुन रही हो तुम मुझे? ये शीशा चीत्कार कर रहा है - कि खोल दो ये खिड़कियाँ
आने दो सूरज की चमकीली रोशनी को, फिर जी जाने दो मुझे ताज़ी हवा के झोंकों से।
चौंक गयी हो तुम सुन कर, फिर भी कंधे झटक कर आँसुओं से लथपथ चेहरा धोने लगी हो
और अब निकल पड़ोगी एक बार फिर रोज़ के जंजाल समेटने, अपने और दूसरों के
रुको, ठहरो ज़रा ऐ सखी
क्यूँ ओढ़ लेती हो तुम दूसरों की उम्मीदों, खुशियों का बोझ अपने नाज़ुक कांधों पर
ये दुनिया ढह ना जाएगी, कोई तूफ़ान ना आ जायेगा
जो एक दिन तुम देर से उठी या भोर होते ही काम में ना जुट गयी
सुन रही हो तुम? एक दिन तो इंतज़ार करने दो इस बड़ी सी लाल बिंदी को
क्योंकि और भी कई निराले रंग हैं तुम्हारे वजूद, तुम्हारी पहचान के
अनामी नहीं तुम, माँ-बीवी-बहू के अलावा तुम्हारा अपना एक नाम भी है
पर शायद याद ही नहीं तुम्हें, खो गया है अस्तित्व ही तुम्हारा
क्यूँ ना आज़ाद कर दो आज, जूड़े में सख़्त अनुशासन से बंधे अपने बालों को
झाड़-बुहार दो बरसों से तुम्हारे मन को उलझाए रीति-रिवाज़ के बेरहम जालों को
सजा लो अपने गौरवशाली ललाट को एक नयी सतरंगी, मनमोहक बिंदी से
सवाल है तो सिर्फ़ एक यही, क्या तुम ऐसा करना भी चाहती हो?
बेहद खूबसूरत
ReplyDeleteWorth a win...
Apologies for the late reply, Pragun. And thank you so much for the appreciation.
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