धूप का टुकड़ा

फिर आ गया वो नन्हा धूप का टुकड़ा
नारंगी फूलों से लदी बेल के उस पार से
किसी नटखट बच्चे सा ज़िद्दी, मुस्कुराता,
आंखें मिचकाता, मुंह बिचकाता, चिढ़ाता

फिर मचल रहा है भूरी काली पड़ चुकी
सीली, स्याह दीवार के बांए कोने पर
जैसे तुम्हारी यादें चली आती हैं अनायास,
बिन कहे, बिन बुलाए मेहमान की तरह
ज़िंदगी के गहराते सायों के उस पार
बेहिसाब खामोशी का आलम है
सूनेपन ने थाम लिया मेरा हाथ है
तुम नहीं हो अब कहीं आस पास पर
तुम्हारी वो गर्म सांसों का अहसास
वो उंगलियों की नर्म छुअन अब भी कहीं
मेरे वजूद में, मेरे दिल के किसी कोने में बाक़ी है
बिल्कुल इस नन्हे धूप के टुकड़े के मानिंद
क्या एक टुकड़ा धूप का छिटक आता होगा
तुम्हारे आंगन के कोने में भी, यूं ही, बिन बुलाए ?

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