डर की कोई उम्र, कोई जेंडर नहीं होता
ये छोटी सी कविता मैं ने करीब तीन साल पहले लिखी थी जब बच्चियों-महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले लगातार रिपोर्ट हो रहे थे और उन्हीं के बीच कुछ ऐसे भी मामले रिपोर्ट हुए थे जिनमें कुछ महिलाओं ने पुरुषों के खिलाफ छेड़ छाड़ या बलात्कार के झूठे मामले दर्ज़ कराये थे।आज ना सिर्फ़ बलात्कार बल्कि छोटी-छोटी बच्चियों के साथ महीनों तक होने वाले सामूहिक बलात्कार के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं।
इन्हीं के साथ बढ़ रहे हैं बच्चों के अपहरण की झूठी अफ़वाहें फैला कर बेक़सूर लोगों की सामूहिक हत्या के मामले। अभी हाल में ही ऐसे मामलों में कई लोगों को सरेआम नृशंसता से मार दिया गया जिनमें से कुछ संगीतकार थे तो कुछ ऐसे जो बच्चों को सिर्फ़ चॉकलेट बाँट रहे थे।
इस नए डर के माहौल को व्यक्त करने के लिए अपनी कविता के पहले दो स्टैंज़ाज़ में ही कुछ और पंक्तियाँ जोड़ रही हूँ। इन मामलों के और मेरी कविता के बारे में अपने विचार साझा कीजियेगा। धन्यवाद।
डर
घर से निकलते हुए वो डरती है,
घर से निकलते हुए वो भी डरता है,
कहीं बस में, मेट्रो में कोई लड़का इधर उधर छू ना दे,
और वो सोचता है कही मेरा हाथ किसी महिला से छू ना जाये,
ऑफिस में किसी सहकर्मी के सरकते दुपट्टे पे नज़र ना अटक जाये,
वो डरती है कहीं मीटिंग में पल्लू कंधे से ढलक ना जाये,
कहीं उसकी मुस्कराहट को आमन्त्रण ना समझ लिया जाये,
वो हर पल सावधान है कि दोस्ताना मदद एक अश्लील कोशिश ना कहलाये।
वो देर होने पर भी बॉस से लिफ्ट नहीं लेती,
वो दोस्त होते हुए भी लिफ्ट ऑफर नहीं करता।
वो मुसीबत में भी किसी से मदद नहीं मांगती,
वो किसी लड़की को देर रात बस स्टॉप पे अकेला देख भी मदद नहीं करता।
वो एक शरीफ़ घर की लड़की है,
वो भी एक शरीफ घर का लड़का है।
वो डरती है उसके किसी काम से परिवार की इज़्ज़त ना चली जाये,
वो डरता है उसके किसी काम से वो जेल ना चला जाये!
वो मासूम डरते हैं
चॉकलेट, मिठाई, टॉफ़ी देने के बहाने
जाने कौन दोस्त, अंकल, पड़ोसी, टीचर-
किस भेष में कौन धोखेबाज़ हमला कर दे।
कोई प्यार से आशीष देने के बहाने
उनका नाजायज़ फ़ायदा ना उठाने लगे।
माँ कहती हैं,
कोई तक़लीफ़, कोई परेशानी हो तो
अपने अध्यापकों को बताओ।
अगर शिक्षक ही हमलावर बन जाये तो
ऐ माँ तू ही बता, किस पर भरोसा करें?
वो तो नन्हें मुन्नों की मीठी मुस्कान को,
मासूम शरारतों को स्नेह से निहार रहे हैं।
वो तो सिर्फ़ उन्हें चॉकलेट देकर
अपने बच्चे का जन्मदिन,
अपने प्रमोशन की ख़ुशी मनाना चाहते हैं।
पर वो भी डरते हैं,
कहीं उनके केक-मिठाई देने को बच्चों के
अपहरण की कोशिश ना मान लिया जाये।
कि कहीं उनके स्नेहिल आशीष को
उनका गलत इरादा ना समझ लिया जाये।
कहीं किसी झूठी अफ़वाह की वजह से
उनकी ज़िंदग़ी ही ख़तरे में ना पड जाए।
दोनों तरफ़ ही बढ़ते जाते हैं
ख़ौफ़ के ज़हरीले साये।
क्या कभी भर पाएगी
दोनों तरफ़ गहराती जाती जो ये
आपसी अविश्वास की खाई है?
इन्हीं के साथ बढ़ रहे हैं बच्चों के अपहरण की झूठी अफ़वाहें फैला कर बेक़सूर लोगों की सामूहिक हत्या के मामले। अभी हाल में ही ऐसे मामलों में कई लोगों को सरेआम नृशंसता से मार दिया गया जिनमें से कुछ संगीतकार थे तो कुछ ऐसे जो बच्चों को सिर्फ़ चॉकलेट बाँट रहे थे।
इस नए डर के माहौल को व्यक्त करने के लिए अपनी कविता के पहले दो स्टैंज़ाज़ में ही कुछ और पंक्तियाँ जोड़ रही हूँ। इन मामलों के और मेरी कविता के बारे में अपने विचार साझा कीजियेगा। धन्यवाद।
डर
घर से निकलते हुए वो डरती है,
घर से निकलते हुए वो भी डरता है,
कहीं बस में, मेट्रो में कोई लड़का इधर उधर छू ना दे,
और वो सोचता है कही मेरा हाथ किसी महिला से छू ना जाये,
ऑफिस में किसी सहकर्मी के सरकते दुपट्टे पे नज़र ना अटक जाये,
वो डरती है कहीं मीटिंग में पल्लू कंधे से ढलक ना जाये,
कहीं उसकी मुस्कराहट को आमन्त्रण ना समझ लिया जाये,
वो हर पल सावधान है कि दोस्ताना मदद एक अश्लील कोशिश ना कहलाये।
वो देर होने पर भी बॉस से लिफ्ट नहीं लेती,
वो दोस्त होते हुए भी लिफ्ट ऑफर नहीं करता।
वो मुसीबत में भी किसी से मदद नहीं मांगती,
वो किसी लड़की को देर रात बस स्टॉप पे अकेला देख भी मदद नहीं करता।
वो एक शरीफ़ घर की लड़की है,
वो भी एक शरीफ घर का लड़का है।
वो डरती है उसके किसी काम से परिवार की इज़्ज़त ना चली जाये,
वो डरता है उसके किसी काम से वो जेल ना चला जाये!
वो मासूम डरते हैं
चॉकलेट, मिठाई, टॉफ़ी देने के बहाने
जाने कौन दोस्त, अंकल, पड़ोसी, टीचर-
किस भेष में कौन धोखेबाज़ हमला कर दे।
कोई प्यार से आशीष देने के बहाने
उनका नाजायज़ फ़ायदा ना उठाने लगे।
माँ कहती हैं,
कोई तक़लीफ़, कोई परेशानी हो तो
अपने अध्यापकों को बताओ।
अगर शिक्षक ही हमलावर बन जाये तो
ऐ माँ तू ही बता, किस पर भरोसा करें?
वो तो नन्हें मुन्नों की मीठी मुस्कान को,
मासूम शरारतों को स्नेह से निहार रहे हैं।
वो तो सिर्फ़ उन्हें चॉकलेट देकर
अपने बच्चे का जन्मदिन,
अपने प्रमोशन की ख़ुशी मनाना चाहते हैं।
पर वो भी डरते हैं,
कहीं उनके केक-मिठाई देने को बच्चों के
अपहरण की कोशिश ना मान लिया जाये।
कि कहीं उनके स्नेहिल आशीष को
उनका गलत इरादा ना समझ लिया जाये।
कहीं किसी झूठी अफ़वाह की वजह से
उनकी ज़िंदग़ी ही ख़तरे में ना पड जाए।
दोनों तरफ़ ही बढ़ते जाते हैं
ख़ौफ़ के ज़हरीले साये।
क्या कभी भर पाएगी
दोनों तरफ़ गहराती जाती जो ये
आपसी अविश्वास की खाई है?
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