Mirror translated In Hindi

This is one of my favorite poems by Sylvia Plath, one which I wanted to translate to Hindi for a long time. So here it is finally, the original poem in English and then its Hindi version. Of course it's not a word-by-word translation, I have tried to just convey the essence of the protagonist's feelings and thoughts about the woman who owns her. 
Do drop in a comment how you find the translation. 

MIRROR

I am silver and exact. I have no preconceptions.
Whatever I see I swallow immediately
Just as it is, unmisted by love or dislike.
I am not cruel, only truthful ‚
The eye of a little god, four-cornered.
Most of the time I meditate on the opposite wall.
It is pink, with speckles. I have looked at it so long
I think it is part of my heart. But it flickers.
Faces and darkness separate us over and over.

Now I am a lake. A woman bends over me,
Searching my reaches for what she really is.
Then she turns to those liars, the candles or the moon.
I see her back, and reflect it faithfully.
She rewards me with tears and an agitation of hands.
I am important to her. She comes and goes.
Each morning it is her face that replaces the darkness.
In me she has drowned a young girl, and in me an old woman
Rises toward her day after day, like a terrible fish.
I am silver and exact. I have no preconceptions.

मैं रुपहला, चमकदार और यथार्थ हूँ. मेरे ह्रदय में किसी के लिए कोई पूर्वाग्रह नहीं है।

मेरे समक्ष जो भी जैसे भी आता है मैं उसे वैसे ही स्वीकार कर लेता हूँ
बिना किसी पक्षपात की भावना के, चाहे वो प्रेम हो या द्वेष।
मैं निर्दयी नहीं, सिर्फ सच के साथ हूँ
ईश्वर की चतुर्मुखी दृष्टि की तरह।
ज्यादातर मैं अपने सामने वाली दीवार को निहारता रहता हूँ
जो गुलाबी धब्बों से आच्छादित है। मैं इतने समय से इसे देख रहा हूँ कि
मानो ये मेरे ह्रदय का एक हिस्सा बन ही गयी है। पर यह दृश्य बदलता रहता है
चेहरे और अँधेरा हमें बार बार अलग कर देते हैं।

अब मैं एक झील की तरह हूँ। एक महिला मेरे ऊपर झुक जाती है
मेरी गहराइयों में अपने 'स्व' को तलाशती हुई।
फिर वो पलट जाती है उन झूठे चाँद और मोमबत्तियों की ओर
मुझे सिर्फ उसकी पीठ दिखाई देती है, उसे भी मैं हमेशा की तरह स्वीकार लेता हूँ।
फिर वो मुझे नवाज़ती है अपने आँसुओं और लरजते हाथों की बेचैनी से
मैं उसके लिए बेहद ज़रूरी हूँ , इसीलिए वो मेरे पास आती है लेक़िन फिर वापस चली जाती है
हर सुबह उसके चेहरे के दीदार के साथ ही ये रात का अँधेरा दूर होता है,
आख़िर मुझ में ही तो उसने एक ख़ूबसूरत नौजवान लड़की को खोया था, और मुझ में से झाँकती
एक बूढ़ी औरत उसे निराश कर देती है, हर सुबह, एक जल बिन तड़पती बदसूरत मछली की तरह। 

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