रात की हार

Sharing a poem narrating the angst of 'night' on the plight of women being forced to stay confined to their homes when night falls. This poem was first published by the prestigious The Anonymous Writer हिंदी and subsequently by The Anonymous Writer. Your feedback and suggestions are welcome.

रात की हार

मुझे माफ़ करना ऐ ख़ुदा,
मंज़ूर नहीं अब मुझे ये सज़ा,
मंज़ूर नहीं जाना वहाँ हर रोज़।

कैसे जाऊं मैं वहाँ हर सांझ,
इंसान की फ़ितरत बदल जाती है
मेरे पैर पड़ते ही जहाँ।
सियाही से भी काले साये मंडराते हैं
माँसल शिकार की तलाश में वहाँ।

''यहाँ क्यूँ बैठी हो, ये क्या पहना है,
उस से मत बोलो, वो मत खाओ,
छह बजे से पहले घर लौट आओ।
भले घर की लड़कियां भटकती नहीं
सड़कों पे, होटलों में देर रात अकेली!''

कितना कुछ सुनना-झेलना पड़ता है,
दुनिया की आधी आबादी को
क्योंकि मेरा होना उनके लिए सुरक्षित नहीं।

तो मैं हारी, आप जीते सूरज भइया,
थाम लेती हूँ आज से मैं अपने क़दम,
क्योंकि आधी ज़िंदग़ी अग़र
क़ैद कर दिया जाये खातूनों को
घर की चारदीवारी में, रोक दी जाये
परवाज़ आज़ाद परिंदों की जहाँ,
उस दुनिया को ज़रूरत नहीं मेरी।

रहने दो आज से सिर्फ़ उजाला वहाँ,
दिलो-दिमाग़ में बदबूदार कालिख़ भरी हो जहाँ,
रात को भी लगता है डर अपने रात होने से वहाँ।

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