हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी

इतवार का दिन, दरियागंज की सड़कें और वहाँ क़ी फ़िज़ा में फैली वो नयी-पुरानी किताबों की खुशबू...हर इतवार सुबह की सैर के बाद अनायास ही उसके पाँव उस तरफ बढ़ जाते। जब तक हाथ में हिंदी-अंग्रेज़ी की दो-चार किताबें ना आ जाएं तब तक पाँव वापस जाने को उठते ही ना थे। जाने क्या था इन किताबो के ढेर में जो उसे हर इतवार वहाँ खींचे लाता था। अब तो घर वालों ने भी पूछना बंद कर दिया था। माँ ज़रूर कभी कभी परेशां हो कर बोल देती थी कि जाने कहाँ से क्यों कूड़ा-कबाड़ उठा लाता है, सारी अलमारी-कमरे भर चुके हैं पर इसका पागलपन ख़त्म होने को नहीं आता!
'आइये सर जी, आज बहुत सी नयी किताबे आयी हैं, आप ही छांट लीजिये पहले,' उसे देखते ही उसके प्रिय दूकानदार ने आवाज़ लगाई।उस रोज़ भी वो हर बार की तरह पुराने उपन्यासों के ढेर से अपने प्रिय लेखक की किताबे ढूंढने लगा ही था कि उसके हाथ मटियाले पन्नों के बीच ही ठिठक गए। धुंधलाई सी स्याही के ऊपर ये क्या लिखा था...?
वही गोल अक्षर, वही शब्द रचना और वही उसका नाम!
'नहीं, ये वो नहीं हो सकती।' उसने सर को झटका दिया और जैसे ही किताब को ढेर में वापस रखने लगा की सर्र से कुछ नीचे गिरा। भूरा पड़ चुका सूखा हुआ लाल गुलाब! नीचे गिरते ही सारी पत्तियां छिटक कर बिखर गयीं पर बिसराई यादो का तो जैसे तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। 'वो मुझ से प्यार करती है, वो मुझ से प्यार नहीं करती' के चक्कर में जाने कितने गुलाब बलि चढ़ गए थे पर उसकी कभी हिम्मत ही ना पड़ती थी कि वो गुलाब उसकी नाज़ुक नर्म उंगलियों में थमा के अपने प्यार का इज़हार कर सके।
दूसरे साल के इम्तहान के बाद कॉलेज का आखिरी दिन था जब सांझ के धुंधलके तले कैसे-कैसे उसने हिम्मत जुटाई थी उसके कमरे तक जाने की। उसके पीजी से कुछ सौ मीटर दूर उसके कदम थम गये। 'आज मैं उस से सब कह दूंगा' सोचते-सोचते उसे दस मिनट हो चले थे, हिम्मत जवाब देने लगी थी कि उसके कमरे का दरवाज़ा खुला। एक हाथ में किताबो का झोला और दूसरे में एक पुराना सा सूटकेस। दोनों फर्श पर रख कर वो वापस मुड़ गयी, शायद और कोई सामान बाकी रह गया था।
'कह दूं, नहीं रहने दो, वो नाराज़ हो गयी तो' की कशमकश के बीच ही उसके मनपसंद लेखक की ये किताब और लाल गुलाब उसके सूटकेस के ऊपर रख कर वो जल्दी से वहाँ से खिसक लिया था। पास की ही एक दुकान के बाहर बेचैनी से सुट्टा फूंकते हुए उसे रिक्शे में सामान रख कर जाते देखता रहा था वो। 'किताब का क्या हुआ होगा, क्या गुलाब देख कर उसे मेरा प्यार कुछ समझ आया होगा? या उसने वो गुलाब डस्टबिन में फेंक दिया होगा?'
वो आखिरी पल था जब उसने उसे नज़र भर देखा था। तीसरे साल की पढ़ाई करने वो वापस कॉलेज आई ही नहीं। सहेलियाँ ज्यादा उसकी थी नहीं, बस कहीं से उड़ती खबर मिली कि उसके पापा ने उसकी शादी तय कर दी थी।
'ये ना थी हमारी क़िस्मत कि विसाले यार होता' पे हर रोज़ दो अश्क़ टपकाते हुए भी उसने किसी तरह पढ़ाई पूरी की और दो साल में ये सरकारी नौकरी लेकर दिल्ली आ गया। फिर हर संडे वो और दरियागंज की गलियाँ...जाने कौन अनचीन्ही सी हसरतें, कौन सी कसक थी दिल में जो उसे खींचे लाती थी यहाँ।
आज उन सारे अनुत्तरित सवालो के जवाब उसे मिल तो गए पर कितनी देर के बाद!
का़श उस दिन हिम्मत जवाब ना दी होती! दिल की कसक अब हूक बन कर उसे धिक्कार रही थी। 'भइया, ये किताब दे दीजिए,' गुलाब की पत्तियों को धीरे से सहेज कर किताब के पन्नों में वापस रखते हुए वो बोला।
'आज बस एक ही किताब लेंगे साहब?'
'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां फिर भी क़म निकले'...ये एफ़ एम वाले क्या दिल की हूक पढ़ना भी जानते हैं! आज बरसों बाद फिर एक बार आंखों से टपकते दो अश्क़ उसने नज़र चुरा कर पोंछ लिये और क़िताब लेकर चलने ही लगा था क कि ...
'भाई साहब, वो किताब जो मैं दो दिन पहले दे गयी थी, उसे लेने कोई आया क्या? वही खनकदार मीठी आवाज़...फ़िर एक बार!
तुम आये तो हवाओं में इक नशा है, तुम आये तो फ़िज़ाओं में रंग सा है, ये रंग सारे हैं बस तुम्हारे और क्या और क्या...नम आँखों और मुस्कुराते होंठों के साथ वो वापस मुड़ गया। ये एफ़ एम वाले वाक़ई जादूगर हैं, दिल की आवाज़ सुनना जानते हैं!



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