झंडे का फंडा
झंडे का फंडा
एक हैं हमारे पडोसी, मने होते तो सबके हैं पर ये वाले कुछ ख़ास हैं। निहायत ही धार्मिक क़िस्म के इंसान हैं, भगवान से डरने वाले। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास में इनकी काफ़ी श्रद्धा है। घर में काफ़ी बड़ा और सुन्दर सा मंदिर बनवाये हैं जिसमे देश के हर कोने के भगवानों की बड़ी-छोटी मूर्तियां सजी हैं जिनके आगे चौबीसों घंटे दिया जलता रहता है। ख़ुदा-ना-ख़ास्ता यदि किसी दिन दिए का तेल ख़त्म हो गया तो फिर तो पत्नी घूंघट में और बच्चों के गोरे-गोरे गाल दो-तीन दिन तक लाल ही दिखाई देते हैं। ख़ैर, ये भाई साहब रोज़ बिना नाग़ा दूकान जाने से पहले दोपहर एक-दो बजे सूरज देवता को जल चढ़ाने आते हैं और भले ही देर रात बारह-एक बजे भी घर पहुंचे पर अपने भगवन के आगे घंटी बजाना नहीं भूलते। भई, इष्ट देवता नाराज़ हो गए तो!
और इधर एक हम हैं जो गाहे-बगाहे कैलेंडर से झांकते हुए भगवान जी के आगे हाथ जोड़ कर, मंगलवार को हनुमान जी को प्रसाद चढ़ा कर और साल में दो बार नवरात्री में व्रत रखकर ही धर्म-कर्म में अपनी आस्था दिखा लेते हैं।
वैसे ये भाई साहब अकेले ना हैं, ऐसे तमाम लोग हैं हमारे मोहल्ले में जो नियम से हर रोज़ मंदिर जाते हैं, माता की चौकी, जागरण, भंडारा वग़ैरा भी करते रहते हैं। तीर्थयात्रा पे खुद भी जाते हैं और अन्य भक्तों को भी उत्साहित करते रहते हैं।
अभी दो दिन पहले ही कुछ पड़ोसी हमें भी ले गए अपने साथ, अरे वो दो कॉलोनी छोड़ कर एक नया मंदिर बना है ना, वहां भगवान जी की 50 फुट ऊंची मूर्ति स्थापित की गयी है तो वही दिखाने ले गए थे। अब अपनी कॉलोनी का मंदिर भी कोई छोटा-मोटा तो है नहीं, तो हम उनसे पीछे क्यों रहें?
वहीं से लौट रहे थे तो रेड लाइट पे हर साल की तरह नन्हे-मुन्ने बच्चे तिरंगे बेचते दिख गए। हम ने भी जल्दी से एक बच्चे से पचास रुपये में पांच झंडे खरीद लिये, चलो उसे एक वक़्त का खाना तो मिल ही जायेगा। मुड़ कर देखा तो भाई साहब एक आदमी से मोल-तोल कर रहे थे। हम ने कहा, भाई साहब ले लो, दस रुपये के लिए क्या बहस कर रहे हो। भाई साहब ने तड़ से हमें डाँट लगा दी, 'अजी वो दस रुपये वाला तिरंगा आप को ही मुबारक़, हम वो दो कौड़ी का छोटा सा झंडा ना खरीदेंगे, देश भक्ति का मामला है, पचास फुट वाला ही लेंगे, देखने वालों को भी तो पता चलना चाहिए, आख़िर हम किसी से कम राष्ट्रभक्त नहीं हैं।' और मुड़ गए खिड़की पे, 'ऐ भाई लाइट हरी होने वाली है, जल्दी से ठीक रेट लगा, हज़ार-वज़ार छोड़ मैं पांच सौ से एक रूपया ज्यादा ना दूंगा और पचास फुट वाला ही लूँगा, देश के लिए तू इतना नहीं कर सकता !
हैं! मूर्ति की ऊँचाई से ईशभक्ति और झंडे की लंबाई से राष्ट्रभक्ति कब से नापी जाने लगी?
अब हम तो लाजवाब हो गए, आगे आप ही समझिये .......जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ।
image courtesy: allpicts.in
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