MAI BANARAS HU
सभी भारतीयों को मेरा प्रणाम,
मैं बनारस हूँ।
मैं काशी और वाराणसी भी हूँ। मैं एक पौराणिक शहर हूँ जहाँ के हर गली कूचे में हर -हर गंगे और हर -हर महादेव की गूंज सुनाई देती है। यहाँ के वासी कहते है बनारस की एक गंगा -जमुनी तहज़ीब है जो कई धर्मोँ को अपने विशाल आगार मे समोए हुए है। कुछ ज्ञानी निवासियों का विश्वास है कि बनारस का मतलब है इस शहर का रस कभी शेष नहीं होता इसलिए मैं बना +रस कहलाता हूँ। कुछ और बुद्धिजीवियों की मान्यता है कि हर शहर का एक मिज़ाज़ होता है और मेरा भी है। कुछ साहित्यकार मुझमें भारत की सांस्कृतिक धरोहर के भी दर्शन करवाते हैं, परन्तु आज मैं बहुत पशोपेश में हूँ।
मैं, भारत के तमाम अन्य शहरों की तरह नये और पुराने में बंटा हुआ शहर हूँ, फिर अचानक ऐसा क्या जादू चला कि मैं देश की राजनीतिक राजधानी कहलाने योग्य बन गया हूँ ? गंगा आरती, हनुमान चालीसा और शंख ध्वनि से गूंजता बनारस रोड शो, रैलियो और घरघराते हेलीकॉप्टर के शोर में कहीं थम सा गया है। चाय की दूकान से सिमट कर चौपाल अब टीवी के जगमगाते पर्दे पर पसर गई है। गंगा के घाटो ने इतने टीवी camre और मीडिया वाले कभी नहीं देखे होंगे जितने इस बार। भूले-बिसरे स्वतन्त्रता सेनानियों, नेताओं और साहित्यकारों की मूर्तियों ने कभी इतनी फूल मालाएँ नहीं पहनी होगी जितनी इस बार के चुनावी संग्राम में। शहर के दरो-दीवार विभिन्न दलों के रंग-बिरंगे पोस्टरों से पट गये हैं……
क्या वाक़ई सामाजिक , राजनीतिक और आर्थिक बदलाव आने वाला है?
कुछ चुनावी योद्धा टाइप लोग महीनों से यहाँ डेरा डाले हुए हैं। एक नेताजी टीवी के पर्दे से एलान करते हैं कि उन्हें गंगा माँ ने बुलाया है, कुछ औरों को मेरी टूटीं-फूटी सड़कों , मेरी तंग गलियों , मेरे मन्दिरोँ-घाटों की चिन्ता यहाँ खींच लाई है। तो कुछ देसी टाइप शख़्स बनारसी बाबुओं को इन बाहरी शक्तियों की असली मंशा से ख़बरदार करते दीखते हैं। कोई बिस्मिल्ला की शहनाई के सहारे वोट छापना चाह्ता है तो कोई गंगा आरती के सहारे भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी वैतरिणी पार करना चाहता है। एक राष्ट्रीय दल बनारस के विकास के सुनहरे सपने दिखा कर वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहा है और उसी दल के नेताजी गंगा से अपने पुराने रिश्ते की तस्वीरें दिखा कर अपने ऊपर लगे बाहरी होने के आक्षेप को नकारने की चेष्टा कर रहे हैं । एक नया नवेला, राजनीति में अपने लड़खड़ाते कदम जमाने की भरपूर कोशिश करता दल भ्रष्टाचार, संप्रदायवाद और व्यक्तिवाद के खिलाफ़ जंग छेड़े हुए है। परिवारवादी राजनीति के वरद्हस्त के विरोध में भी स्वर बहुत मुखर हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जाति और धर्म के नाम पर जबरन वोट छापने वालो को भी इस बार जनता ने गरियाने का मन बना ही लिया है।
मेरे निवासियों को आशा है कि बनारस के दिन अन्ततः फिरने वाले हैं क्योंकि यहाँ ---- आने वाले हैं , और उनके साथ देश के भी अच्छे दिन आने वाले हैं।
लेकिन चुनावी आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच मेरे मिज़ाज़ का एक और पहलू शायद बिसरा गया है- बनारस के ठग! पिछले कुछ महीनों से, मठाधीशों और पंडो को पीछे छोड़, सफ़ेदपोश राजनीतिज्ञों का जामा पहने ये नये तकनीकी जादूगर एक नयी तरह की ठगी से शायद मेरा मन हरने की कोशिश कर रहे हैं .......
आज के इस आखिरी चुनावी दंगल में कोई भी जीते, बनारस की और भारत की जनता जीतेगी या हारेगी, इसका उत्तर तो भविष्य की गोद में ही छुपा है।
साभार ,
मैं आपका बनारस
Comments
Post a Comment