WAQT
वक़्त
वक़्त ,
नियम-पाबंद,
सब कुछ था चाक -चौबंद,
पर जाने-अनजाने, कहे-अनकहे, कब -कैसे,
घंटों-मिनटों में बटने लगा
वक़्त।
जीवन के चक्र में लगने लगे पैबन्द,
ये एक घंटा इसके नाम,
अगले दो तेरे नाम,
आज इसका टेस्ट,
कल उसके परीक्षा का दिन,
कहाँ छूट गये वो मौज-मस्ती भरे पल-छिन?
ओह, अपने लिए संजोये ये तीस मिनट
आज भी जायेंगे बंट ,
क्योंकि परिस्थिति है विकट ,
बच्चे ले आये हैं फ़िल्म के टिकट,
तो कल उनके लिए रखे वक़्त
से करने होगे ये तीन घंटे कट.
कैसा बेरहम है ये
वक़्त!
पाख -पंखुरी बिखरने लगी
ज़िंदगी के जोड़-घटा, गुणा-भाग, विश्लेषण-संश्लेषण
में कहीं पीछे छूट गया है
प्यार-दुलार, मान-मनुहार,
छिन गए चैन के दो क्षण,
बिसरा गया है भावनाओं का सम्प्रेषण,
क़ाश
इस वक़्त के साथ मिल जाये कुछ वक़्त,
ताकि कर सकूँ अपनी त्रासदी व्यक्त,
और एक विनती,कि ना हो पल-पल की गिनती,
बस मिल जाये हर दिन में कुछ और
वक़्त।
पर आज नहीं,
आज नहीं,
क्योंकि आज नहीं है,
एक मिनट का भी
वक़्त !
वक़्त ,
नियम-पाबंद,
सब कुछ था चाक -चौबंद,
पर जाने-अनजाने, कहे-अनकहे, कब -कैसे,
घंटों-मिनटों में बटने लगा
वक़्त।
जीवन के चक्र में लगने लगे पैबन्द,
ये एक घंटा इसके नाम,
अगले दो तेरे नाम,
आज इसका टेस्ट,
कल उसके परीक्षा का दिन,
कहाँ छूट गये वो मौज-मस्ती भरे पल-छिन?
ओह, अपने लिए संजोये ये तीस मिनट
आज भी जायेंगे बंट ,
क्योंकि परिस्थिति है विकट ,
बच्चे ले आये हैं फ़िल्म के टिकट,
तो कल उनके लिए रखे वक़्त
से करने होगे ये तीन घंटे कट.
कैसा बेरहम है ये
वक़्त!
पाख -पंखुरी बिखरने लगी
ज़िंदगी के जोड़-घटा, गुणा-भाग, विश्लेषण-संश्लेषण
में कहीं पीछे छूट गया है
प्यार-दुलार, मान-मनुहार,
छिन गए चैन के दो क्षण,
बिसरा गया है भावनाओं का सम्प्रेषण,
क़ाश
इस वक़्त के साथ मिल जाये कुछ वक़्त,
ताकि कर सकूँ अपनी त्रासदी व्यक्त,
और एक विनती,कि ना हो पल-पल की गिनती,
बस मिल जाये हर दिन में कुछ और
पर आज नहीं,
आज नहीं,
क्योंकि आज नहीं है,
एक मिनट का भी
वक़्त !
जब मैं छोटा था, शायद दुनिया
ReplyDeleteबहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से"स्कूल" तक
का वो रास्ता, क्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान,
बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप",
"विडियो पार्लर" हैं,
फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...
जब मैं छोटा था,
शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं...
मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस",
वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है
और सीधे रात हो जाती है.
शायद वक्त सिमट रहा है..
जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती
बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना,
वो लड़कियों की बातें,
वो साथ रोना...
अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी "traffic signal" पे मिलतेहैं
"Hi" हो जाती है,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दीवाली, जन्मदिन,
नए साल पर बस SMS आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..
जब मैं छोटा था,
तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग,
पोषम पा, कट केक,
टिप्पी टीपी टाप.
अब internet, office,
से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है.
.
जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
जो अक्सर कबरिस्तान के बाहर
बोर्ड पर लिखा होता है...
"मंजिल तो यही थी,
बस जिंदगी गुज़र गयी मेरी
यहाँ आते आते"
ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है...
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..
अब बच गए इस पल में..
तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
हम सिर्फ भाग रहे हैं..
कुछ रफ़्तार धीमी करो,
मेरे दोस्त,
और इस ज़िंदगी को जियो...
खूब जियो .....
oh...kya baat, kya baat, kya baat! so very true......and so poignant! thanks Manoj, for such a lovely poem......
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