Sadabahar

सदाबहार

खिलने लगे हो तुम
फिर एक बार
किसी खिड़की के कोने पे,
अमरूद-आम की जड़ों में,
और भर दिया है तुमने
अपने गुलाबी सफ़ेद रंगो से
सीमेंट के बीच की इस दरार को।
चले आते हो तुम चुपके से यूँ
सर्द रातों के बाद
हर बार एक नई आशा,
एक आश्वासन की तरह
कि दूर नहीं अब एक
ताज़गी भरी सुबह।
और रोशन कर देते हो
ज़िंदगी मेरी
एक नई शुरुआत की
उम्मीद से।  


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