ज़रूरी नहीं, नियति से पहले ही मर जाना।

आह....देखा था तुम्हें उस दिन पहली बार
नन्हें से थे तुम जब, हरी पत्तियों का दुशाला ओढ़े,
ठंडी हवा से जैसे सिहरते तुम्हारे गुलाबी गाल
महका दिया था घर-आँगन मेरा
तुमने अपनी मनभावनी खुशबू से।
और आज जब नियति खींचे जा रही है
तुम्हें अपनी ओर
आर्द्र हो रहा है ये मन मेरा।
झर जाओगे, बिछड़ जाओगे तुम अब,
छूना चाहती हूँ मैं तुम्हें एक आख़िरी बार
इस से पहले कि बिखर जाओ तुम,
विलीन हो जाओ उसी मिट्टी में
जहाँ से उभरा था अस्तित्व तुम्हारा,
संजो लेना चाहती हूँ स्पर्श तुम्हारा
अपनी उँगलियों के पोरों में।
पर नहीं, इतनी स्वार्थी नहीं मैं
यूँ झर जाने नहीं दे सकती तुम्हें,
समय से पहले तो बिलकुल नहीं।
एक दिन चले जाना है हम सभी को
पंचतत्व में विलीन होना ही नियति है,
पर ज़रूरी नहीं रोते रहना उसके लिए
जो अभी हुआ ही नहीं,
ज़रूरी नहीं, नियति से पहले ही मर जाना।
तो बस समेट लेना है तुम्हारी ख़ूबसूरती को
अपने मन-प्राण में, खुश रहना चाहती हूँ
तुम्हें याद करते हुए, रूह की गहराइयों में
तुम्हारी ख़ुशबू को समोए हुए
इस आशा में, इस इंतज़ार में
कि लौट आओगे मेरे आँगन में तुम
फिर एक बार, यूँ ही एक हरा दुशाला ओढ़े।


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